आचार्य श्रीराम शर्मा >> विवाह दिवसोत्सव कैसे मनाएँ विवाह दिवसोत्सव कैसे मनाएँश्रीराम शर्मा आचार्य
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विवाह दिवसोत्सव कैसे मनाएँ
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सप्तपदी
सात बार कदम मिला कर आगे बढ़ने का प्रयोजन यह है कि गृहस्थ जीवन के साथ उद्देश्यों की पूर्ति दोनों कन्धे से कन्धा, पैर से पैर हाथ से हाथ, मन से मन मिलाकर बिचार और कर्म करते रहें। गाड़ी के दो पहिए जब साथ-साथ चलते हैं तभी गतिशीलता उत्पन्न होती है। जीवन में प्रगति के लिए पति-पत्नी का हर क्षेत्र में कदम से कदम मिलाकर फौजी सैनिकों की तरह आगे बढ़ चलना आवश्यक है।
(१) आहार व्यवस्था (२) शारीरिक बल-बुद्धि (३) अर्थ व्यवस्था (४) विनोद-मनोरंजन (५) पारिवारिक उत्तरदायित्व (६) गृह व्यवस्था (७) पारस्परिक स्के सद्भाव यह सात उद्देश्य गृहस्थ निर्माण के होते हैं। पति-पत्नी इन सातों की सुव्यवस्था में ध्यान लगाये रहते हैं। श्हस्थ की सुख, शान्ति और प्रगति इन सात तथ्यों पर अवलम्बित रहती है।
(१) भोजन सात्विक, पोष्टिक, उपयोगी सुरुचिपूर्ण हो, उसमें तामसिक, फूहड़पन एवं चटोरेपन का समावेश न रहे। आहार के अनुरूप ही विचार बनते है। विचारों पर ही जीवन का स्वरूप अवलम्बित है। इसलिए गृहस्थ का कर्तव्य है कि आहार की सात्विकता एवं पवित्रता नष्ट न होने दें। तामसी योजना दुर्भाव ही पैदा करेगी, उससे पति-पत्नी के सम्बन्ध ही नही बिगड़ेगे वरन् परिवार में अशान्ति फैलेगी और बच्चों का स्वभाव बिगड़ेगा। गृहस्थ के स्वस्थ विकास में आहार की सात्विकता का असाधारण योग होता है इसे भुलाया नहीं जाना चाहिए।
(२) शारीरिक स्वास्थ्य को बनाये रहने के लिए उचित परिश्रम उचित विश्राम, उचित ब्रह्मचर्य उचित दिनचर्या, सफाई, परिचर्या, चिकित्सा आदि का आवश्यक ध्यान अपना ही नहीं साथी का भी रखना चाहिए। परिवार का एक भी सदस्य जा न रहने पावे, तभी गृहस्थ की सफलता है। इस दिशा में तनिक भी उपेक्षा न बरती जाय और बिगड़ती स्थिति संभाल ली जाय तो घर में निरोगता का वातावरण रखा जा सकता है।
(३) अधिक उपार्जन के लिए अधिक श्रम और अधिक प्रयास करना होता है। फिजूलखर्ची एक पैसी की भी न होने दी जाय। पारिवारिक उत्कर्ष के दूरदर्शिता पूर्ण कार्यो में मुक्तहस्त से खर्च किया जाय, कुसमय के लिए कुछ बचत हर गृहस्थ को रखनी चाहिए। बजट बनाकर खर्च करना चाहिए। ठग और धूर्तों से बचना चाहिए। सामाजिक उत्कर्ष के लिए अपनी कमाई का एक अंश नियमित रूप से देना चाहिए। फैशन, शेखीखोरी, निरर्थक सृंगार नशेबाजी, व्यसन एवं सामाजिक कुरीतियों में होने वाले निरर्थक खर्च को कड़ाई के साथ रोकना चाहिए। घर में जिनके पास जो समय बचता है उसे वे उपार्जन में लगायें। कोई ठाली न बैठे, ऐसा प्रबन्ध करें। गृह उद्योगों व टूट-फूट ठीक करने का अभ्यास करें। इस प्रकार वे उपाय करने चाहिए जिससे घर की अर्थव्यवस्था सुसंतुलित बनी रहे।
(४) घर की मनहूसी, खिन्नता, कुढ़न, रूठना, मटकना, मनमुटाव, ताने कसना, लड़ना-झगड़ना आवेश-उत्तेजना का वातावरण नहीं रहना चाहिए। कुढ़न से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नहीं टिकता है प्रगति रुक जाती है और समृद्धि चली जाती है। ऐसे घरों में दुःख और दारिद्र डेरा डाले पड़े रहते हैं। ऐसा दुस्वभाव जिस किसी का भी हो, उसे एक बुरी किस्म का बीमार समझकर प्रेम एवं सौजन्य से सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। हँसी-खुशी का स्वभाव बनायें और जो समस्यायें हों उन्हें सौम्यता, सज्जनता, नम्रता एवं शिष्टतता के वातावरण में सुलझायें तो वे अपेक्षाकृत आसानी से सुलझ जाती हैं। घर में खेल-कूद गायन-वाद्य कथा-कहानी, सुसज्जा, स्वच्छता का मनोरंजक वातावरण रहे, कभी-कभी घूमने-देखने भी जाया करें, उत्सव आयोजनों में भी सम्मिलित होते रहें। प्रसन्नता की स्थिति परिवार में बनाये रहना मानसिक स्वस्थता के विनोद मनोरंजन का वातावरण रखने के लिए आवश्यक समझा जाना चाहिए।
(५) परिवार में जितने सदस्य हों उन सभी की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाय। ऐसा न हो कि पुरुष जो कमाये उस पर पत्नी ही पूरा अधिकार कर ले और अपने बच्चों के अतिरिक्त और किसी को उसका लाभ न लेने दे। माता-पिता, भाई, बहिन सभी तो एक भले कुटुम्ब के सदस्य होते हैं। उनके भरण-पोषण, शिक्षण, विवाह, चिकित्सा आदि में होने वाला खर्च निरर्थक न समझा जाय। कमाने के कारण अहंकार और न कमाने के कारण तिरस्कार नहीं होना चाहिए। घर के हर सदस्य को उचित सम्पत्ति, उचित प्रोत्साहन और उचित विकास साधन मिलते रहे इसका पूरा ध्यान रखना भी विवाह का उद्देश्य है। सप्तपदी का पाँचवा कदम इसी उत्तरदायित्व को निबाहने के लिए उठाया जाता है।
(६) गृह प्रबन्ध में उपयोगी हर वस्तु की, हर कार्य की सुव्यवस्था रखनी चाहिए। कपड़े, बर्तन, खाद्य पदार्थ, जूते, पुस्तकें, बिस्तर, फर्नीचर आदि हर चीज यथास्थान, ठीक क्रम से संभाल कर रखी जानी चाहिए। चीजों का फटे-टूटे, बिखरे, अव्यवस्थित रीति से पुटके रहना घर को कुरुचिपूर्ण बनाना तो है ही, दरिद्रता का आवाहन करना भी है। घर की हर चीज को यथास्थान सुव्यवस्थित और सुन्दर रीति से संभाल कर रखा जाना सद्गृहस्थ का लक्षण है। छतों पर जाले, कौने में कड़ा, टूटी और निरर्थक चीजों का झंझट नहीं लगा रहना चाहिए। नाली, टट्टी, पाखाने गंदे नहीं रहने चाहिए। हर चीज का स्थान नियत रहे और वह वहीं रखी जाय। टूटी-फूटी चीजों की मरम्मत करने की कला आनी चाहिए, यदि स्वयं वैसा न कर सकें तो बाहर मरम्मत करा लें। इस प्रकार गृह व्यवस्था का उचित ध्यान रखा जाना पत्नी का ही नहीं, पति का भी काम है। दोनों इस प्रक्रिया में सहयोग करें और घर के सब लोगों को ऐसा शिक्षण दें कि वे भी सफाई और व्यवस्था के लिए सावधानी बरतें और श्रम करें। गन्दगी एवं अव्यवस्था घर में न फैलने पावे, सप्तपदी का छठा कदम इसी कर्तव्य के पालन करने के लिए है।
(७) पारस्परिक सद्भाव एवं विश्वास गृहस्थ के सफल होने का मूल आधार है। एक-दूसरे को अविश्वास और सन्देह की दृष्टि से देखें तो उसकी छोटी-छोटी आकस्मिक भूलें भी जानबूझ कर की गई दुष्टता जैसी प्रतीत होती है। संदेह से संदेह और अविश्वास से अविश्वास बढ़ता है। इसलिए परस्पर छिद्रान्वेषण करने और अपने प्रति दुर्भाव रखने की बात को गृहस्थ-जीवन में आग लगाने वाली चिनगारी की तरह सदा दूर ही रखना चाहिए। गलतियों को भूल विवशता या उपेक्षा या नादानी ही माना जाय और कभी सहन करने तथा कभी मीठी चुटकी लेते हुए उसे सुधारने के लिए सौहार्द्रपूर्वक अनुरोध करना चाहिए। यदि सुधार न भी हो सके तो भी सुधार न होने के साथ-साथ दुर्भाव बढ़ने की दूनी हानि क्यों उठायी जाय? सुधार नहीं होता है तो उससे एक ही हानि है, दुर्भाव बढ़ने से तो दूनी हानि होगी। इसलिए सुधार का कोई मार्ग न दीखे तो भी सहभाव एवं विस्वास तो बनाये ही रखना चाहिए। मित्रता पर आँच किसी की कारण नहीं आने देनी चाहिए। सप्तपदी का सातवाँ कदम इसी तथ्य की पूर्ति के लिए उठाया जाता है।
यह व्याख्या सप्तपदी के सात कदम पति-पत्नी द्वारा साथ-साथ 'उत्पये जाने की क्रिया का उद्देश्य समझाते हुए करनी चाहिए। ऊपर कुछ संकेत मात्र ही दिये गये हैं। कुशल वक्ता जिन्होंने गृहस्थ जीवन की समस्याओं का विस्तृत अध्ययन किया है वे घटनाओं, उदाहरण, प्रसंगों और समाचारों का पुट देकर उसे बहत ही आकर्षक बना सकते है। इसके लिए दाम्पत्य जीवन सम्बन्धी अनेक पुस्तकों का पढ़ना तथा उनसे उत्पन्न होती रहने वाली समस्याओं का स्वरूप तथा हल जानना आवश्यक है। वक्ताओं का इस क्षेत्र में विशाल अध्ययन तथा चिन्तन-मनन होना चाहिए।
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